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Sunday, May 3, 2009
Sunday, April 12, 2009
Friday, April 10, 2009
खिड़की की दास्ताँ
नाटक को जब हम लोगों ने पढ़ा , शायद उसी दिन ये तय हो गया था की नाट्य मंच में कुछ हो या नहीं खिड़की अनिवार्य है । शायद दर्शक गणों को खिड़की विशेष नहीं लगी हो और उसे बस अद्भुत प्रकाश व्यवस्था , बिजली कड़कने , रात्रि की रौशनी एवं सवेरा होने वाली लालिमा का स्रोत मान रहे हों परन्तु ये सब उपरी बातें हैं ।
पूरे नाट्य के अगर काव्य गुण पर अगर गौर किया जाए तो खिड़की का अपना एक अलग ही महत्व है ।
हम लोगों ने खिड़की के काव्य गुण पर प्रकाश डालने के लिए कुछ महत्वपूर्ण संवाद खिड़की के पास रखे । न केवल स्त्री के "मेरे जीवन के दीर्घ अट्ठाईस साल ..." वाला संवाद अपितु वृद्ध का प्रादुर्भाव एवं अंत भी खिड़की के पास से ही दिखलाया गया । मेरे हिंसाब से खिड़की स्त्री के लिए एक लक्ष्मन रेखा है जिसके इस पार बैठ कर वो घुट सकती है , खोने पाने का हिंसाब कर सकती है पर उसे पार नहीं कर सकती । खिड़की उसके लिए एक माध्यम है अपने भावों , सपनो एवं अपेक्षाओं को 'रंजन' तक पहुँचाने का ।
अगर दर्शकों ने गौर किया होगा तो नाट्य के अन्तिम सर्ग में वृद्ध खिड़की के पास खड़े होते हैं , जो की इस बात का द्योतक था अब वृद्ध भी अपना संदेश अपनी भावनाएं खिड़की के माध्यम से अपनी "मानसी" तक पहुँचाना चाह रहे हैं । जी हाँ "प्रतिभा" जी ने भी ये स्वीकार किया है की वृद्ध कोई और नहीं अपितु वयः प्राप्त "इन्द्रजीत" ही है ।
पूरे नाट्य के अगर काव्य गुण पर अगर गौर किया जाए तो खिड़की का अपना एक अलग ही महत्व है ।
हम लोगों ने खिड़की के काव्य गुण पर प्रकाश डालने के लिए कुछ महत्वपूर्ण संवाद खिड़की के पास रखे । न केवल स्त्री के "मेरे जीवन के दीर्घ अट्ठाईस साल ..." वाला संवाद अपितु वृद्ध का प्रादुर्भाव एवं अंत भी खिड़की के पास से ही दिखलाया गया । मेरे हिंसाब से खिड़की स्त्री के लिए एक लक्ष्मन रेखा है जिसके इस पार बैठ कर वो घुट सकती है , खोने पाने का हिंसाब कर सकती है पर उसे पार नहीं कर सकती । खिड़की उसके लिए एक माध्यम है अपने भावों , सपनो एवं अपेक्षाओं को 'रंजन' तक पहुँचाने का ।
अगर दर्शकों ने गौर किया होगा तो नाट्य के अन्तिम सर्ग में वृद्ध खिड़की के पास खड़े होते हैं , जो की इस बात का द्योतक था अब वृद्ध भी अपना संदेश अपनी भावनाएं खिड़की के माध्यम से अपनी "मानसी" तक पहुँचाना चाह रहे हैं । जी हाँ "प्रतिभा" जी ने भी ये स्वीकार किया है की वृद्ध कोई और नहीं अपितु वयः प्राप्त "इन्द्रजीत" ही है ।
Monday, April 6, 2009
Team Saari Raat
Main Stream :
Alok Kumar Singh
Akanksha Mishra
Gaurav Mittal
Mohit Modi
Abhinav Bansal
Help from other Faculty :
Atul and group
Pritesh kushwaha
Vocals:
Piyush Pandey
Akanksha Trigun
Special thanks :
Ashish Kumar Jain
Prachi Mittal
Shantanu Singh
Veerendra Singh
Brijesh Vikal
Ankit Rawat
Mradul sharma
Ashutosh Pandey
Our Music Team
Prasoon Bansal
Arghya sen
Ranade
Abhinav Pandey
Lastly we thank Nikhil Sachan for being so cooperative॥
We are also thankful to our respected alumni for the cooperation and well wishes which includes :
Ravi Jakhar , Kapil Hari Dwivedi , Pushpendra Pratap Singh , Animesh Pathak , Abhisek Khanna , Saurabh Jha, Aditya goyal , Shashank Jain , Atish Agarwal , Amit Khandelwal , Nikhil Gupta , Rahul Raaj and Anubhav Nigam
Alok Kumar Singh
Akanksha Mishra
Gaurav Mittal
Mohit Modi
Abhinav Bansal
Help from other Faculty :
Atul and group
Pritesh kushwaha
Vocals:
Piyush Pandey
Akanksha Trigun
Special thanks :
Ashish Kumar Jain
Prachi Mittal
Shantanu Singh
Veerendra Singh
Brijesh Vikal
Ankit Rawat
Mradul sharma
Ashutosh Pandey
Our Music Team
Prasoon Bansal
Arghya sen
Ranade
Abhinav Pandey
Lastly we thank Nikhil Sachan for being so cooperative॥
We are also thankful to our respected alumni for the cooperation and well wishes which includes :
Ravi Jakhar , Kapil Hari Dwivedi , Pushpendra Pratap Singh , Animesh Pathak , Abhisek Khanna , Saurabh Jha, Aditya goyal , Shashank Jain , Atish Agarwal , Amit Khandelwal , Nikhil Gupta , Rahul Raaj and Anubhav Nigam
Friday, April 3, 2009
असमंजस
कल रात सैलाब आया था या मौसम में मोहब्बत थी ?
कोई बता भी दे मुझको , कल क्या मेरी हालत थी ।
अब मुझे याद ना आए मेरी बदहवासी का वो मंजर ,
क्या मेरी जद्दोजहद में कोई जुर्रत, कुछ जलालत थी ?
कि रात से ही टंगी हूँ उधेड़बुन के जंजाल पे , मैं ;
पहले उसकी दीवानगी , अब पति की वकालत थी ।
कोई बता भी दे मुझको , कल क्या मेरी हालत थी ।
अब मुझे याद ना आए मेरी बदहवासी का वो मंजर ,
क्या मेरी जद्दोजहद में कोई जुर्रत, कुछ जलालत थी ?
कि रात से ही टंगी हूँ उधेड़बुन के जंजाल पे , मैं ;
पहले उसकी दीवानगी , अब पति की वकालत थी ।
Wednesday, April 1, 2009
Tuesday, March 31, 2009
...मेरे जीवन का अब तक का सबसे गहरा नाटक...
आज तक मैंने जितने भी नाटकों में अभिनय किया, या जितने भी नाटकों को पढ़ा, सारी रात ने मन को सबसे ज़्यादा झकझोरा है, मन में हिलोरें उठायी हैं। इस नाटक के आरंभिक काल में हम ३-४ लोगों में बहुत समय तक केवल बहस और तर्क-वितर्क ही चलते रहते थे। कई बार कोई निष्कर्ष नहीं निकलता था, और कई बार जैसे समुद्र-मंथन हो गया हो और पता नहीं क्या-क्या बाहर आ गया हो। यदि सच बोलूँ तो मैं ख़ुद अब तक इस नाटक की गहराई नहीं नाप पाया हूँ, जिसके लिए शायद मुझे और १५-२० साल लग जायेंगे। आम दर्शक के दृष्टिकोण से इस नाटक में रोमांच है, जिसका प्रयोग हम दर्शकों को बांधे रखने में करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। कई मित्र मुझसे पूछ रहे हैं कि केवल ३ कलाकार पूरे नाटक के दौरान मंच को कैसे संभाल कर रखेंगे। सच कहूँ तो इसका जवाब मुझे भी नहीं पता है। बस इतना पता है कि हम लोगों के सारे प्रयत्न इसी दिशा में हैं कि हम नाटक को जितना बेहतर बना सकते हैं, बनाएँ, और सबके मन पर एक छाप छोड़ पाएँ। जिन लोगों ने यह नाटक पढ़ा है, मैं उनसे निवेदन करता हूँ कि हमें सुझाव दें कि नाटक को बेहतर कैसे बनाया जा सकता है। अपने सुझाव कमेंट्स में डालें (~ कृपया इस बात का ध्यान रखें कि नाटक की गोपनीयता बनी रहे :) ~)
Monday, March 30, 2009
बातें 'सारी रात' की
बातों और भावों में एक सामंजस्य है , जो महसूस होता है परन्तु दिखता नहीं । हर बात के कई भाव और हर भाव के लिए कई बात। अस्तु।
कहते हैं रात्रि निराशा , अवसाद एवं दुःख का प्रतीक है , परन्तु दुःख ही सत्य है , अवसाद ही सच्चा मित्र है एवं निराशा ही प्यार से गले लगाती है । कहते हैं रात जितनी काली अकेली और डरावनी हो , चेतना उतनी ही स्वतंत्र एवं निराकार होती है ।
शायद मेरी दृष्टी में यही वो समय है जब मनुष्य अपने आप से प्रश्न कर सकता है , अपनी जिंदगी का हिंसाब लगा सकता है और तो और अपनी बातों और भावों में एक सामंजस्य को न केवल महसूस कर सकता है अपितु देख भी सकता है । शायद यही वो समय है जब मनुष्य बिना किसी प्रतिबन्ध , बिना किसी मकड़जाल , बिना किसी अवरोध के सोच सकता है ।
जब इंसान के भाव और उसकी बातें धुआं बनकर आपस में मिलती हैं तो शायद सबसे विस्फोटक स्थिति उत्पन्न हो जाती है , और उसी धुँए का जब दुबारा पान मनुष्य करता है तो सारे बंधन स्वतः ही टूट जाते हैं और किसी इतर का ख्याल नही रहता , बस जो मन कहता है इंसान स्वतः ही करता चल जाता है ।
शायद यही बातें होती हैं 'सारी रात ' की .......................
कहते हैं रात्रि निराशा , अवसाद एवं दुःख का प्रतीक है , परन्तु दुःख ही सत्य है , अवसाद ही सच्चा मित्र है एवं निराशा ही प्यार से गले लगाती है । कहते हैं रात जितनी काली अकेली और डरावनी हो , चेतना उतनी ही स्वतंत्र एवं निराकार होती है ।
शायद मेरी दृष्टी में यही वो समय है जब मनुष्य अपने आप से प्रश्न कर सकता है , अपनी जिंदगी का हिंसाब लगा सकता है और तो और अपनी बातों और भावों में एक सामंजस्य को न केवल महसूस कर सकता है अपितु देख भी सकता है । शायद यही वो समय है जब मनुष्य बिना किसी प्रतिबन्ध , बिना किसी मकड़जाल , बिना किसी अवरोध के सोच सकता है ।
जब इंसान के भाव और उसकी बातें धुआं बनकर आपस में मिलती हैं तो शायद सबसे विस्फोटक स्थिति उत्पन्न हो जाती है , और उसी धुँए का जब दुबारा पान मनुष्य करता है तो सारे बंधन स्वतः ही टूट जाते हैं और किसी इतर का ख्याल नही रहता , बस जो मन कहता है इंसान स्वतः ही करता चल जाता है ।
शायद यही बातें होती हैं 'सारी रात ' की .......................
Wednesday, March 25, 2009
हुकुम की बीवी का इंतज़ार
कठोर, कृतघ्न , कृष्ण रात
भिन्गाती, कंपकंपाती, डराती बरसात ।
अकेली सूनी भुतही हवेली
करते खूब हँसी ठिठोली ।
टूटे रोशनदानो का महल
झांकते अपलक नेत्र विकल ।
'सात' है अंक महान
जीवन के सर्ग तमाम ।
शब्दों का ये मकड़जाल
रिश्तों के जादू - जंजाल ।
दग्ध आंखों की अनवरत मार
'हुकुम की बीवी' का इंतज़ार ।
भिन्गाती, कंपकंपाती, डराती बरसात ।
अकेली सूनी भुतही हवेली
करते खूब हँसी ठिठोली ।
टूटे रोशनदानो का महल
झांकते अपलक नेत्र विकल ।
'सात' है अंक महान
जीवन के सर्ग तमाम ।
शब्दों का ये मकड़जाल
रिश्तों के जादू - जंजाल ।
दग्ध आंखों की अनवरत मार
'हुकुम की बीवी' का इंतज़ार ।
Tuesday, March 24, 2009
Monday, March 23, 2009
सारी रात जगा हूँ मैं
सारी रात .....
सारी रात जगा हूँ मैं
अनिद्रित नेत्रों से अपलक
ताकता शून्य में
सारी रात .....
स्वप्नों के आडम्बर से भयभीत
अशक्त अधीर कुंठित मन से
प्रश्नों के इस छाद्म्जाल को
बुनता रहा
सारी रात ......
पीड़ा प्रहर्ष के संधि पात पर
प्रणय विरह के झंझावत को
स्मृतियों के तीव्र भंवर में
ख़ुद ही ख़ुद को
छलता रहा
सारी रात .......
सारी रात .......
सारी रात जगा हूँ मैं
अनिद्रित नेत्रों से अपलक
ताकता शून्य में
सारी रात .....
स्वप्नों के आडम्बर से भयभीत
अशक्त अधीर कुंठित मन से
प्रश्नों के इस छाद्म्जाल को
बुनता रहा
सारी रात ......
पीड़ा प्रहर्ष के संधि पात पर
प्रणय विरह के झंझावत को
स्मृतियों के तीव्र भंवर में
ख़ुद ही ख़ुद को
छलता रहा
सारी रात .......
सारी रात .......
Friday, March 6, 2009
Saari Raat
'सारी रात' मन को उद्वेलित करती है , पीड़ा देती है और फिर शेष कर देती है , शायद 'सारी रात' का इससे बेहतर परिचय मेरी लेखनी से सम्भव नही । भाषा की बात करें तो किसी भी नाट्य में इससे बेहतर यमकों एवं श्लेशों का प्रयोग मुझे नही दिखा है । मालूम होता है पूरे नाट्य को ही काव्यात्मक शैली में लिखा गया हो।
'सारी रात ' कोई विरह अथवा वीभत्स रस की अभिव्यक्ति नहीं है अपितु भावनाओं का मानवीकरण है । भावनाएं जो हर स्त्री पुरूष के अन्दर होती हैं , जो स्वप्नों का अंतरमहल खड़ा कराती है , जो आनंद देती है जो रुलाती है और कुछ का तो जीवन ही नष्ट कर डालती हैं ।
मेरे मुताबिक 'सारी रात ' एक स्त्री के भावनाओं की अभिव्यक्ति है । इस नाट्य को पढ़ने से पूर्व मेरा मानना था की 'तिरिया चरित' को पुरूष समुदाय समझ ही नही सकता परन्तु 'बादल बाबु' ने जिस तरह से स्त्री के चरित्र को खोला है , वह निश्चय ही किसी महामानव के मस्तिष्क एवं लेखनी के सामंजस्य से ही सम्भव है ।
'सारी रात ' कोई विरह अथवा वीभत्स रस की अभिव्यक्ति नहीं है अपितु भावनाओं का मानवीकरण है । भावनाएं जो हर स्त्री पुरूष के अन्दर होती हैं , जो स्वप्नों का अंतरमहल खड़ा कराती है , जो आनंद देती है जो रुलाती है और कुछ का तो जीवन ही नष्ट कर डालती हैं ।
मेरे मुताबिक 'सारी रात ' एक स्त्री के भावनाओं की अभिव्यक्ति है । इस नाट्य को पढ़ने से पूर्व मेरा मानना था की 'तिरिया चरित' को पुरूष समुदाय समझ ही नही सकता परन्तु 'बादल बाबु' ने जिस तरह से स्त्री के चरित्र को खोला है , वह निश्चय ही किसी महामानव के मस्तिष्क एवं लेखनी के सामंजस्य से ही सम्भव है ।
Sunday, March 1, 2009
About Badal Babu
Badal Sarkar is a famous Indian dramatist. He has written more than fifty plays of which Ebong Indrajit and Basi Khabar are well known literary pieces. He is actively involved with Bengali theatre.
He rose to prominence in the 1970's and was one of the leading figures in the revival of street theater in Bengal. He revolutionized Bengali theatre with his angst-ridden, anti-establishment plays during the Naxalite movement. He has been awarded the Padma Shri in 1972, Sangeet Natak Akademi Award in 1968 and the Sangeet Natak Akademi Fellowship, Ratna Sadsya , in 1997.
Some of his famous plays are Evam Indrajit , Shesh Naai , Basi Khabar , Baaki Itihaash , Pagla Ghoda , Prastava , Juloos ,Bhoma , Saari raat , Badi bua ji , Kavi kahini etc.
His plays reflected the atrocities that prevailed in the society, the decayed hierarchical system and were socially enlightening.He is a proponent of the "Third theatre" movement that stood ideologically against the state.Third theatre involved street plays, with actors being attired no differently than the audience.Also the formal bindings of the proscenium theatre was given up.Sarkar's "Bhoma" is an example of a third theatre play,set,as always,in an urban background.
"Badi bua ji" is a family drama while "Pagla ghoda" creates a ghostly hymn and depicts four different women .What I believe , Badal babu uses every poetic word in his plays . You can find pun in every word .
He rose to prominence in the 1970's and was one of the leading figures in the revival of street theater in Bengal. He revolutionized Bengali theatre with his angst-ridden, anti-establishment plays during the Naxalite movement. He has been awarded the Padma Shri in 1972, Sangeet Natak Akademi Award in 1968 and the Sangeet Natak Akademi Fellowship, Ratna Sadsya , in 1997.
Some of his famous plays are Evam Indrajit , Shesh Naai , Basi Khabar , Baaki Itihaash , Pagla Ghoda , Prastava , Juloos ,Bhoma , Saari raat , Badi bua ji , Kavi kahini etc.
His plays reflected the atrocities that prevailed in the society, the decayed hierarchical system and were socially enlightening.He is a proponent of the "Third theatre" movement that stood ideologically against the state.Third theatre involved street plays, with actors being attired no differently than the audience.Also the formal bindings of the proscenium theatre was given up.Sarkar's "Bhoma" is an example of a third theatre play,set,as always,in an urban background.
"Badi bua ji" is a family drama while "Pagla ghoda" creates a ghostly hymn and depicts four different women .What I believe , Badal babu uses every poetic word in his plays . You can find pun in every word .
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