नाटक को जब हम लोगों ने पढ़ा , शायद उसी दिन ये तय हो गया था की नाट्य मंच में कुछ हो या नहीं खिड़की अनिवार्य है । शायद दर्शक गणों को खिड़की विशेष नहीं लगी हो और उसे बस अद्भुत प्रकाश व्यवस्था , बिजली कड़कने , रात्रि की रौशनी एवं सवेरा होने वाली लालिमा का स्रोत मान रहे हों परन्तु ये सब उपरी बातें हैं ।
पूरे नाट्य के अगर काव्य गुण पर अगर गौर किया जाए तो खिड़की का अपना एक अलग ही महत्व है ।
हम लोगों ने खिड़की के काव्य गुण पर प्रकाश डालने के लिए कुछ महत्वपूर्ण संवाद खिड़की के पास रखे । न केवल स्त्री के "मेरे जीवन के दीर्घ अट्ठाईस साल ..." वाला संवाद अपितु वृद्ध का प्रादुर्भाव एवं अंत भी खिड़की के पास से ही दिखलाया गया । मेरे हिंसाब से खिड़की स्त्री के लिए एक लक्ष्मन रेखा है जिसके इस पार बैठ कर वो घुट सकती है , खोने पाने का हिंसाब कर सकती है पर उसे पार नहीं कर सकती । खिड़की उसके लिए एक माध्यम है अपने भावों , सपनो एवं अपेक्षाओं को 'रंजन' तक पहुँचाने का ।
अगर दर्शकों ने गौर किया होगा तो नाट्य के अन्तिम सर्ग में वृद्ध खिड़की के पास खड़े होते हैं , जो की इस बात का द्योतक था अब वृद्ध भी अपना संदेश अपनी भावनाएं खिड़की के माध्यम से अपनी "मानसी" तक पहुँचाना चाह रहे हैं । जी हाँ "प्रतिभा" जी ने भी ये स्वीकार किया है की वृद्ध कोई और नहीं अपितु वयः प्राप्त "इन्द्रजीत" ही है ।
Friday, April 10, 2009
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